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श꣣ग्ध्यू꣢३꣱षु꣡ श꣢चीपत꣣ इ꣢न्द्र꣣ वि꣡श्वा꣢भिरू꣣ति꣡भिः꣢ । भ꣢गं꣣ न꣡ हि त्वा꣢꣯ य꣣श꣡सं꣢ वसु꣣वि꣢द꣣म꣡नु꣢ शूर꣣ च꣡रा꣢मसि ॥१५७९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

शग्ध्यू३षु शचीपत इन्द्र विश्वाभिरूतिभिः । भगं न हि त्वा यशसं वसुविदमनु शूर चरामसि ॥१५७९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श꣣ग्धि꣢ । उ꣣ । सु꣢ । श꣣चीपते । शची । पते । इ꣡न्द्र꣢꣯ । वि꣡श्वा꣢꣯भिः । ऊ꣣ति꣡भिः꣢ । भ꣡ग꣢꣯म् । न । हि । त्वा꣣ । यश꣡स꣢म् । व꣣सुवि꣡द꣢म् । व꣣सु । वि꣡द꣢꣯म् । अ꣡नु꣢꣯ । शू꣣र । च꣡रा꣢꣯मसि ॥१५७९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1579 | (कौथोम) 7 » 3 » 3 » 1 | (रानायाणीय) 16 » 1 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में २५३ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में हो चुकी है। यहाँ अपने अन्तरात्मा को प्रबोधन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (शचीपते) प्रज्ञा और कर्म के स्वामिन् ! (इन्द्र) मेरे अन्तरात्मन् ! तू (विश्वाभिः) सब (ऊतिभिः) प्रगतियों से (उ सु) भली-भाँति (शग्धि) सशक्त हो। हे (शूर) शूरवीर ! (भगं न) सूर्य के समान (यशसम्) यशस्वी और (वसुविदम्) ऐश्वर्यों को पानेवाले (त्वा) तेरा, हम (अनु चरामसि) सेवन करते हैं ॥१॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

अपने आत्मा को प्रबुद्ध करके ही मनुष्य उन्नति कर सकते हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २५३ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्योर्विषये व्याख्याता। अत्र स्वान्तरात्मा प्रबोध्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (शचीपते) प्रज्ञायाः कर्मणश्च स्वामिन् (इन्द्र) मदीय अन्तरात्मन् ! त्वम् (विश्वाभिः) सर्वाभिः (ऊतिभिः) प्रगतिभिः (उ सु) सम्यक् (शग्धि) शक्तो भव। हे (शूर) वीर ! (भगं न) सूर्यमिव (यशसम्) यशस्विनम्, (वसुविदम्) ऐश्वर्याणां प्रापकम् (त्वा) त्वाम्, वयम् (अनु चरामसि) सेवामहे ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

स्वात्मानं प्रबोध्यैव मनुष्या उन्नतिं कर्तुं शक्नुवन्ति ॥१॥